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जनवादी बुनियाद की वैचारिक जद्दोजहद और एक नई सामाजिकता की जरूरत

आजादी के बाद भारत के बहुत बड़े तबके के लिए अगर कोई चीज सबसे अधिक रक्षणीय है तो वह है लोकतंत्र I लोकतंत्र की रक्षा करना सबसे ज्यादा जरूरी इसलिए है क्योंकि हमारी वास्तविक आजादी व खुशहाली का यही एकमात्र जरिया है, यह जरिया जितना ज्यादा मजबूत होगा हमारा जीवन उतना ही अधिक बेहतर होता चला जाएगा, इतना ही नहीं हमारी भावी पीढ़ियों के हित भी उतने ही अधिक सुरक्षित रह पाएंगे I लेकिन जिस प्रकार हम हवा में घटती ऑक्सिजन की मात्रा को लेकर लापरवाह है उसी प्रकार की लापरवाही लोकतंत्र में घटती सहिष्णुता व संवेदनशीलता को लेकर है I वर्तमान पीढ़ी ने लोकतंत्र को एक पैतृक हस्तांतरण के जरिये पाया और इसीलिए शायद वर्तमान पीढ़ी इसके लिए किए गए संघर्ष को भूल बैठी है। जिन लोगों ने इसके लिए संघर्ष किया वो तो गुजर गए इसलिए हमें इसके महत्व का अहसास नहीं है I


आजादी के बाद इस बात की आस जगी कि गणतांत्रिक भारत में आम जन वैचारिक रूप से सम्पन्न होकर जनवाद की बुनियाद मजबूत करेगा I पिछले तीस सालों में सूचना क्रांति ने विचारों के प्रवाह को विशेष गति दी लेकिन यह गति बहुसंख्यक समाज के वैचारिक उत्थान में ख़ास योगदान नहीं दे पायी । इसकी पहली वजह तो यह है कि सकारात्मक विचारों को जिस तरह की गंभीरता व मानसिक ठहराव की जरूरत होती है वह हमारे समाज में दो कारणों से नहीं है पहला- हमारा समाज अच्छी किताबों को पढ़ने और उन पर सार्थक विचार-विर्मश करने को लेकर खास उत्साह नहीं रखता, दूसरा- सूचना क्रांति ने हमें बाजार के रूप में तब्दील करने के लिए हमारे अंदर बिना मतलब का उतावलापन भर दिया इस कारण हर व्यक्ति गम्भीर व संवेदनशील बनने की बजाय पैसे वाला और प्रभावशाली बनने को ही सफल जीवन का पैमाना मान बैठा है I दूसरी वजह यह है कि जो व्यक्ति वैचारिक रूप से गरीब होते हैं वे विचारों के गुण-अवगुण का आकलन करने में कमजोर होते हैं इस कारण वे खराब किस्म के विचार व सूचनाओं का शिकार होकर विचारवान बनने की सामर्थ्य खो देते हैं और वैचारिक तौर पर बीमारू लोगों की भीड़ का हिस्सा बनते चले जाते हैं I चूंकि भीड़ का अपना एक सामाजिक गुरुत्वाकर्षण होता है लिहाज़ा यह भीड़ जितनी अधिक बड़ी होती जाती है उतनी ही अधिक माथा भक्षी (सही तरीके से सोचने की सामर्थ्य का भक्षण करने वाली ) होती चली जाती है और बरमूडा त्रिकोण की तरह लोक चेतना को बिना कोई निशान छोड़े सतत रूप से निगलती रहती है I तीसरी वजह है शिक्षा व्यवस्था के प्रति हमारा नजरिया, हमारे लिए शिक्षा रोजगार, वो भी सफेदपोश रोजगार का जरिया है न कि नागरिकता निर्माण का I


आज हमारी समस्या धार्मिक भेद या हिन्दू-मुसलमान नहीं है बल्कि जल -जंगल -जमीन, इंसानियत, अहिंसा और संवेदनशीलता को खत्म करने पर उतारू शक्तियां हैं इन शक्तियों व इनके हिमायतियों की पहचान करके और उनसे लड़कर, जीतकर ही हम हमारे लोकतंत्र व नागरिक समाज के चरित्र को सुरक्षित रख सकते हैं I इस मकसद को पूरा करने के उद्देश्य से आज का समाज मे एक नई प्रकार का संघठन की आवश्यकता है। क्योंकि हमारा मानना है कि गणतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकता अर्जित की जाने वाली वह योग्यता है जो एक सतत प्रक्रिया के रूप में सदैव क्रियाशील रहती है जो समाज नागरिकता को जन्म से प्राप्त अधिकार मात्र समझता है वह इस क्रियाशील प्रक्रिया के साथ तालमेल नहीं बैठा पाता और लोकतंत्र को सुरक्षित करने में असमर्थ हो जाता है I


शहीद भगत सिंह ने जुलाई 1928 में किरती में प्रकाशित अपने लेख "नए नेताओं के अलग-अलग विचार' में लिखा था कि "इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है। एक अन्य जगह नेहरू जी द्वारा मुम्बई में एक जनसभा में दिए गए भाषण को उध्दृत करते हुए लिखा - - “प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए I राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी I मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलां बात कुरान में लिखी हुई है I कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए I" आज हमारे नौजवानों को सामाजिक सुधारवादी विचारों की जरूरत है ताकि वे लोकतंत्र व आज़ादी के वास्तविक अर्थ, हिंदुस्तान को सच्चे लोकतंत्र की जरूरत, दुनिया के मजबूत लोकतंत्रों से वहां के लोगों को होने वाली सहूलियतों और मजबूत लोकतांत्रिक समाजों में वहां के नौजवान क्या पढ़ रहे हैं , क्या सोच रहे हैं क्या कर रहे हैं इन सबके बारे में जान सकें I


महावीर सिहाग, उपेंद्र शर्मा और श्याम सुन्दर ज्याणी

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